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दीपावली: घर से दूर रहने वालों की

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  यह छोटी-सी कहानी हर उस शख़्स की है जो हर बार की तरह इस बार भी त्यौहार पर घर अपने-अपने घरों से मीलों दूर , यायावरी की ज़िंदगी बिताते हुए , ऊंची-ऊंची शीशों की इमारतों के बक्से जैसे Cubical में Confined, उदास चेहरा लिए , बाहर गहरे शून्य से सामने की residential building पर सजी दीपावली के लाइटों को टकटकी लगा कर देख अपने को इस समझौते में ढ़ालने की कोशिश करता है कि अब घर और त्यौहार कभी एक साथ नहीं आने वाले। वक़्त और हालातों के मारे , दो जून की रोटी की जुगाड़ में भटकते भटकते , अब इनकी जिम्मेदारियां इतनी बड़ी हो चुकी है कि उसके बोझ तले इन्हें अपने मन की इच्छाओं का गला घोंटना ही सही लगता है। इनके लिए तो त्योहारों के मायने तो अब बस घर से दूर किराये के छोटे से दबड़े के किसी कोने में बैठ कर , खिड़की से पटाखे छूटते हुए देखना , सामने बच्चों के उत्साही झुंड में अपने आप को ढूंढना , रात कि सजावट में घूम कर अपने शहर को ढूंढना और फिर अंत में होटल से मंगाए हुए खाने में घर क स्वाद को मानना ही रह गया है। ये सारे लोग किंचित परिस्थितियों में अपने जिम्मेदारी का बोझ लिए घरों से निकल तो जाते हैं , पर उनका एक हिस्...