दीपावली: घर से दूर रहने वालों की
यह छोटी-सी कहानी हर उस
शख़्स की है जो हर बार की तरह इस बार भी त्यौहार पर घर अपने-अपने घरों से मीलों दूर, यायावरी की
ज़िंदगी बिताते हुए, ऊंची-ऊंची शीशों की इमारतों के बक्से जैसे Cubical में Confined, उदास चेहरा लिए, बाहर गहरे शून्य
से सामने की residential
building पर सजी दीपावली के लाइटों को टकटकी लगा कर देख अपने को इस
समझौते में ढ़ालने की कोशिश करता है कि अब घर और त्यौहार कभी एक साथ नहीं आने वाले।
वक़्त और हालातों के मारे, दो जून की रोटी की जुगाड़ में भटकते भटकते, अब इनकी
जिम्मेदारियां इतनी बड़ी हो चुकी है कि उसके बोझ तले इन्हें अपने मन की इच्छाओं का
गला घोंटना ही सही लगता है। इनके लिए तो त्योहारों के मायने तो अब बस घर से दूर
किराये के छोटे से दबड़े के किसी कोने में बैठ कर, खिड़की से पटाखे छूटते हुए देखना, सामने बच्चों के
उत्साही झुंड में अपने आप को ढूंढना, रात कि सजावट में घूम कर अपने शहर को ढूंढना और
फिर अंत में होटल से मंगाए हुए खाने में घर क स्वाद को मानना ही रह गया है।
ये सारे लोग किंचित
परिस्थितियों में अपने जिम्मेदारी का बोझ लिए घरों से निकल तो जाते हैं, पर उनका एक
हिस्सा अब भी वहीं उसी आंगन में रह रहा होता जिसे वह पीछे छोड़ आने का स्वांग कर
रहे होते है। ये देखने के लिए कि इस त्यौहार में, आज मां ने घर में क्या Special बनाया होगा, कौन कौन-सी मिठाइयां
पूजा के बाद प्रसाद में बांटने के लिए रखा हुआ है और सबसे छोटे वाले भाई, जो कि उसे ले कर
भागने को आतुर है, उसे वह कैसे बार-बार समझा रहीं है कि उसको ये भगवान जी के पूजा के बाद ही
मिलेगा। पिताजी किस तरह बार-बार झोला उठाये मोहल्ले के किराने दुकान पर कम पड़ रहे
और छूट गए सामान को लेने बार-बार जा रहे होंगे और फिर वापस आने पर मां से ये झिड़की
खा रहे होंगे कि पूजा का समय हो गया है, सारा दुनिया तैयार हो चुका है और आप ऐसे ही घूम
रहे है। मझोला भाई किस तरह अपने मुर्गा छाप पटाखों को कई बार धूप में सूखा कर
मोहल्ले में तबाही मचाने को तैयार बैठा है, किस तरह छोटी बहन बार-बार अपने बनाये हुए रंगोली
को निहार रही है और ये चेतावनी जारी कर चुकी है कि सब कोई मेरे रंगोली के पास से
ध्यान से गुजरेगा, अगर थोड़ा भी इधर उधर हुआ तो आज ख़ैर नहीं।
इन्हीं सब यादों और
कल्पनाओं की आपाधापी में खोए, घर से दूर, यायावरी ज़िन्दगी जीते हुए, धीरे-धीरे ही
सही, वक़्त के साथ अब ये इस शर्त पर समझौता करने को राज़ी हो रहे होते हैं कि अब जब
घर से निकल ही गए हैं तो इतिहास लिख कर ही वापस जायेंगे, इस उम्मीद और
इंतज़ार के साथ कि "वक़्त नहीं लगता, वक़्त बदलने में"।
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