किताबें ही काफी हैं…

आज कुछ और नई किताबें डिलीवर हुईं … जो मैंने as usual online order की थीं। पैकेट खोला , किताबें एक - एक करके निकालीं , उनके कवर को छूते हुए , titles पढ़ते हुए , बस यूं ही उलटते - पलटते सोचने लगा कि आखिर ये मेरा किताबों के साथ का रिश्ता शुरू कब हुआ था ? काफी देर तक दिमाग खंगालता रहा , लेकिन exact time या reason याद नहीं आया। बस इतना महसूस हुआ कि ये रिश्ता नया नहीं है , काफी पुराना है। शायद तब से जब मैं खुद भी नहीं जानता था कि मैं किताबें पढ़ने में इतना खो जाया करूंगा। और शायद तब से जब किताबें सिर्फ syllabus की चीज़ें नहीं थीं , बल्कि उस दुनिया की खिड़की बन गई थीं , जहाँ मैं अपनी मर्ज़ी से जा सकता था , बिना visa, बिना टिकट , बस कुछ पन्ने पलटकर। धीरे - धीरे जब और किताबें जुड़ती गईं , तो genres बदलते गए , कभी fiction, कभी biographies, कभी travelogues, कभी spirituality, और कभी - कभी तो वो भी जो मैं खुद नहीं समझता कि क्यों खरीदी … बस कुछ होता...