किताबें ही काफी हैं…
आज कुछ और नई किताबें डिलीवर हुईं… जो मैंने as usual online order की थीं। पैकेट खोला, किताबें एक-एक करके निकालीं, उनके कवर को छूते हुए, titles पढ़ते हुए, बस यूं ही उलटते-पलटते सोचने लगा कि आखिर ये मेरा किताबों के साथ का रिश्ता शुरू कब हुआ था?
काफी देर तक दिमाग खंगालता रहा, लेकिन exact time या reason याद नहीं आया। बस इतना महसूस हुआ कि ये रिश्ता नया नहीं है, काफी पुराना है। शायद तब से जब मैं खुद भी नहीं जानता था कि मैं किताबें पढ़ने में इतना खो जाया करूंगा। और शायद तब से जब किताबें सिर्फ syllabus की चीज़ें नहीं थीं, बल्कि उस दुनिया की खिड़की बन गई थीं, जहाँ मैं अपनी मर्ज़ी से जा सकता था, बिना visa, बिना टिकट, बस कुछ पन्ने पलटकर।
धीरे-धीरे जब और किताबें जुड़ती गईं, तो genres बदलते गए, कभी fiction, कभी biographies, कभी travelogues, कभी spirituality, और कभी-कभी तो वो भी जो मैं खुद नहीं समझता कि क्यों खरीदी… बस कुछ होता है उन किताबों में जो खींच लेता है। शायद एक तरह का 'calling' होता है। और ये भी सच है कि मैंने कई किताबें सिर्फ titles देखकर खरीदीं, जैसे कोई दोस्त हो, जिसका नाम सुनते ही लगता है, हाँ, इससे connection बनेगा।
अब तो आलम ये है कि shelves भर चुकी हैं, कुछ किताबें टेबल पर पड़ी हैं, कुछ bed के नीचे, और कुछ ऐसी भी जो courier के पैकेट में ही हैं, अभी तक खोली नहीं, लेकिन फिर भी एक तसल्ली है कि वो मेरे पास हैं, मेरे mood के हिसाब से कभी भी साथ दे देंगी।
कई बार लोग पूछते हैं कि "इतनी किताबें पढ़कर क्या करते हो?" मैं मुस्कुरा देता हूं… क्योंकि जवाब शब्दों में कहां दिया जा सकता है? किताबें सिर्फ पढ़ने की चीज़ नहीं होतीं… वो जीने की चीज़ होती हैं।
कई बार जब life dull लगती है, या जब कोई अपना साथ नहीं होता, किताबें होती हैं। जब कुछ समझ नहीं आता, या जब कोई जवाब नहीं मिलता, किताबें होती हैं। और जब सब कुछ होता है, फिर भी कुछ अधूरा सा लगता है, तब भी किताबें ही होती हैं।
कभी-कभी लगता है कि अगर इस दुनिया में कोई सबसे ईमानदार, निःस्वार्थ रिश्ता है, तो वो एक reader और किताब के बीच का होता है। किताबें न कोई शर्त रखती हैं, न कोई judgment करती हैं। वो सिर्फ आती हैं, साथ देती हैं और फिर मन के किसी कोने में उतर जाती हैं। अब तो जैसे ये routine बन गया है, महीने में एक-दो बार किताबें मंगवाना, उनको हाथ में लेकर महसूस करना, कभी उनकी खुशबू सूंघना, और फिर धीरे-धीरे उन्हें पढ़ते हुए किसी और दुनिया में चले जाना।
और फिर मुझे लगता है कि इस भागती-दौड़ती जिंदगी में, जहां हर कोई किसी न किसी दौड़ में है, वहां किताबें चुन लेने से बेहतर कुछ सुझा ही नहीं। क्योंकि ये किताबें ही हैं जो मुझे मेरे आपसे जोड़ती हैं। ये बताती हैं कि अकेले रहना अलग बात है, लेकिन अकेले महसूस करना, वो किताबें आने ही नहीं देतीं।
शायद यही वजह है कि आज भी जब कोई किताब डिलीवर होती है, तो एक अजीब सी ख़ुशी होती है। एक excitement,
जैसे कोई पुराना दोस्त मिलने आया हो। और फिर जब एक किताब खत्म होती है, तो उसकी जगह कोई नई किताब खुद-ब-खुद चुन ली जाती है। और तब समझ आता है, कि शायद ये रिश्ता किताबों से कभी शुरू हुआ था… लेकिन अब ये सिर्फ किताबों का नहीं, खुद से जुड़ने का एक रास्ता बन गया है। और शायद... ज़िंदगी में बहुत कुछ तय नहीं होता… पर ये तय है कि "और फिर मुझे किताबें चुन लेने से बेहतर कुछ सुझा ही नहीं।"
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