फितरत
हम इन्सान भी फितरते अजीब रखते हैं,
देकर जख्म अपने दर्दों का हिसाब रखते हैं,
कहाँ? कब? क्यों और क्या किया?
ये भूल कर दूसरों की किताब रखते हैं,
दिखा कर आईना अपनी हसरतों का
न जाने गुनाह कितनी बार करते हैं,
तोड़ते हैं उसूलों को कदम-दर-कदम
और सरे राह उसूलों की बात करते हैं,
दिए थे गम गए बरस न जाने कितने
इस बरस उम्मीदों की आरजू रखते हैं,
जमाने भर में करके रुसवा दोस्तों को
साथ चलने की शिकायत बार-बार करते हैं,
दिखा कर जता कर नाराजगी का चलन
वफ़ाओं के आलम की चाहत रखते हैं...
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