वक़्त की धार

मैंने हर रोज ज़माने को रंग बदलते देखा है,
उम्र के साथ ज़िन्दगी को ढंग बदलते देखा है,
वो जो चलते थे तो शेर के चलने का होता था गुमां,
उनको भी पांव उठाने के लिए सहारे को तरसते देखा है,
जिनकी नजरों की चमक को देख सहम जाते थे लोग,
उन्हीं नज़रों को बरसात की तरह रोते देखा है,
जिनके हाथों के जरा से इशारे से टूट जाते थे पत्थर,
उन्हीं हाथों को पत्थर की तरह थर थर कांपते देखा है,
जिनकी आवाज़ से बिजली के कड़कने का होता था भ्रम,
उनकी होठों पर भी जबरन चुप्पी का ताला लगा देखा है,
ये जवानी, ये ताकत, ये दौलत, सब कुदरत की इनायत हैं,
इनके रहते हुए भी इंसान को बेज़ान हुए देखा है,
अपने आज पर इतना न इतराना यारों,
वक़्त की धार में अच्छे अच्छों को मजबूर हुए देखा है।

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