बचपन की सरस्वती पूजा
सरस्वती पूजा का नाम आते ही एक अलग ही उत्साह और उमंग दिल में जाग उठती है। यह
केवल देवी सरस्वती की आराधना का पर्व नहीं था, बल्कि बचपन की उन
सुनहरी यादों का संगम था, जब यह दिन केवल
पूजा तक सीमित नहीं रहता था, बल्कि मस्ती, उमंग और बाल सुलभ इच्छाओं से भरा होता था। सरस्वती पूजा की सुबह कुछ खास होती थी। माघ
महीने की हल्की ठंड, ऊपर से सुबह-सुबह जल्दी उठकर नहाने का आलस, लेकिन यह भी पता होता था कि पूजा के बहाने स्कूल की किताबों से एक दिन की
छुट्टी मिल जाएगी। घर के बड़े-बुजुर्ग पहले ही घर की सफाई कर चुके होते, आंगन लीपा-पुता होता और मां-चाची पूजा की तैयारियों में जुटी होतीं।
रसोई से आती मीठे और स्वादिष्ट व्यंजनों की खुशबू पूरे घर को त्योहारमय बना
देती। सबसे पहले घर में प्रसाद
बनाया जाता, जिन्हें खाने की उत्सुकता
और खुशी अलग ही होती थी। इनके अलावा, घर में पूड़ी, पुआ, आलू-गोभी की अत्यंत
स्वादिष्ट सब्जी बनता था, जिसे खाने की इच्छा पूजा से पहले ही होने लगती
थी। सुबह की तैयारियों के बाद
सबसे बड़ा सवाल होता था "कब किताबें
माँ के सामने रख दें?" पूजा का असली मजा तभी आता
था जब हम अपनी स्कूल की किताबें देवी सरस्वती के चरणों में रख देते थे। इसका मतलब
था कि अब पूरे दिन पढ़ाई से छुट्टी! मन ही मन यह भी खुशी होती थी कि "माँ
सरस्वती हमें पढ़ने से बचा रही हैं," भले ही यह बस एक
दिन के लिए ही सही। जब पंडित जी पूजा
कर रहे होते, तब भी ध्यान इस बात पर
होता कि प्रसाद कब मिलेगा और किताबें कितनी देर तक माँ के चरणों में रखी रहेंगी
ताकि कोई हमें पढ़ने को न कहे। मंत्रों के उच्चारण के साथ माहौल पूरी तरह भक्तिमय
हो जाता। पूजा के बाद प्रसाद मिलता, और घर में मिठास
और उल्लास का माहौल रहता।
पूजा के बाद दोपहर में थोड़ा आराम करने के बाद शाम होते ही असली मस्ती शुरू
होती, पंडाल हॉपिंग! पूरे शहर के मुहल्लों में छोटे-बड़े अलग-अलग तरह के पंडाल
सजते थे, जिनमें देवी माँ की सुंदर प्रतिमाएँ स्थापित की जाती थीं।
कुछ जगहों पर मूर्तियाँ पारंपरिक शैली की होतीं, तो कुछ पंडाल थीम पर
आधारित होते। गली-मोहल्लों के बच्चे और
दोस्त मिलकर एक साथ पंडालों के दर्शन करने निकलते। हर जगह देवी माँ की आरती गूंजती, भजन बज रहे होते। अगर किसी पंडाल में भोग बँट रहा होता, तो हम भी लाइन में लग जाते और हाथ में दोना लेकर गरम-गरम प्रसाद खाने का आनंद
उठाते। कुछ पंडालों में भव्य
झाँकियाँ भी होतीं, कहीं माँ सरस्वती को वीणा
बजाते दिखाया जाता, तो कहीं पूरे ब्रह्मांड की रचना के साथ उन्हें
विद्या की देवी के रूप में प्रदर्शित किया जाता। सबसे ज्यादा रोमांच तब आता जब
दोस्तों के साथ हम तय करते कि कौन सा पंडाल सबसे सुंदर है और कहाँ सबसे अच्छा
प्रसाद मिलता है।
त्योहार की असली परीक्षा अगले दिन आती, विसर्जन का समय।
सुबह पूजा के बाद प्रसाद बँटता,
घरों में भोग लगता, और फिर धीरे-धीरे लोग मूर्तियों को विसर्जन के लिए ले जाने की तैयारी करने
लगते। विसर्जन एक भावुक क्षण होता,
क्योंकि यह माँ सरस्वती
से विदाई लेने का समय होता। ढोल-नगाड़ों की
गूँज, गुलाल का रंग और नाचते-गाते लोगों का हुजूम विसर्जन को एक
भव्य जुलूस में बदल देता। हम बच्चे भी पूरी मस्ती में झूमते, नाचते-गाते हुए माँ को विदा करने के लिए जाते। नदी या तालाब किनारे जाते ही मन
थोड़ा भारी हो जाता, अब अगले साल ही माँ
सरस्वती फिर आएँगी। विसर्जन के बाद जब हम घर लौटते, तो मन में एक खालीपन सा
लगता, लेकिन दिल में यह तसल्ली भी होती कि अगले साल फिर वही
उत्साह, वही मस्ती और वही बचपन की मासूम खुशी हमें इस त्योहार में
फिर से मिलेगी।
आज जब बचपन पीछे छूट चुका है और जीवन की भागदौड़ में सरस्वती पूजा केवल एक दिन
का त्योहार बनकर रह गया है, तो वह मासूम खुशियाँ बहुत याद आती हैं। अब न वह
भोरे-भोरे नहाने की मस्ती है, न ही किताबें माँ के चरणों में रखकर पढ़ाई से
बचने की चालाकी। न वह पंडाल हॉपिंग का उत्साह बचा है और न ही ढोल-नगाड़ों के साथ
नाचने की बेफिक्री। लेकिन इन यादों में जो मिठास है, वह आज भी मन को सुकून देती है। सरस्वती पूजा सिर्फ विद्या की देवी की पूजा
नहीं, बल्कि बचपन की उन अनमोल खुशियों का प्रतीक है, जिन्हें हम जीवन की दौड़ में कभी-कभी भूल जाते हैं। काश, हम फिर से वही बचपन जी पाते,
वही प्रसाद के छोटे-छोटे
टुकड़े खा पाते, और वही पंडालों में मस्ती भरी शाम बिता पाते!
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