सुनों, तुम्हारी याद आती है
बाहर तेज बारिश हो रही है, और इधर मैं खिड़की से बाहर देखते हुए सोच रहा हूं, कैसा होगा वो शहर, वो मेरा अपना बनारस, जिसे मैं पीछे उसी घाट पर छोड़ आया हूं, जहाँ एक नदी उसे हल्के सहलाते हुए अब भी बह रही है, एक सूरज अब भी वहीं उन्हीं घाटों के सामने उगता है, और शाम की आरती के साथ वहीं ढल जाता है। कुछ नावें जो रोज़ उन्हें चूमती हुई ठहर जाती है, और उन्हीं में से एक पर मेरे मन की आंखे अब भी वहीं ठहरी हुई हैं। ठीक उसी घाट के सामने जहां तुम मुझे पहली बार बैठी मिली थी, और जहां से अपने अंदर एक पूरा बनारस भर कर तुमसे अलग हुआ था। मैं जितना भर सकता था उतना तो भर लिया पर मन वहीं छूट गया। उम्मीद है, एक दिन वापस जरूर आउंगा, तुमसे उसी घाट के किनारे लगी नाव पर मिलने जहाँ से हम अलग हुए थे और फिर से उन्हीं गलियों में भटकने , जिनमें हम कभी हुड़दंग मचाते थे, उन्हीं टपरियों पर वापस फिर से बिना किसी फ़िक्र के उन्मुक्त हो कर महफ़िल ज़माने और अंत में थक कर घाटों के आगोश में सुकुन के साथ रातें काटने। तो बनारस, तुम इंतज़ार करना इस पागल लड़के का , जो तुम्हारे साथ बिताई हुई शामें, सुबहें और रातों को अब भी याद करता है...